सिंचूंगा इश्क-ए-फसल
रहे चंद रोज मेरे दिल में घर बनाकर।
कोई और न बसे चले खंडहर बनाकर।।
निशा होती है खंडहर बुलंद इमारत की।
लूटा होगा दिलरुबा ने बेखबर बनाकर।।
सोचो ना यह क्या होगा जिंदगी का मेरे।
हम पी लेंगे जिंदगी को भी जहर बनाकर।।
अपने अस्कों को होने न दूंगा जाया।
सिंचूंगा इश्क-ए-फसल को नहर बनाकर।।
ना कहूंगा तुझे बेवफा बेरहम संग दिल।
करुंगा इबादत खुदा उम्र भर बनाकर।।
ना बनूंगा देवदास औरों की तरह मैं।
तेरे तोड़े गए दिल से उड़ूंगा पर बनाकर।।
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