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ग़ज़ल बेचीं है


कल यरों मैंने अपनी एक ग़जल बेचीं है

आज लगता है जैसे अपनी फसल बेंची है

हो गए तार तार एक ऑरत की आज आबरू

आज फिर किसी ने मर्द के लिया तन बेचीं है

कल बेचेगा अपनी बेटी, यह हकीकत है

आज शराब के लिए उसने बहन बेचीं है

सदियों से चला आया बहस चलता ही रहेगा

क्यों बेटे ने ही अपने बाप की कफन बेचीं है

हाथ से निकला तब जा कर पता चला

पत्थर के रूप में मैंने अनमोल रतन बेचीं है

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